|| कुछ कहना ||

कुछ कहना या कुछ ऐसा करना जिससे किंही को पीड़ा पहुंचे न चाहते हुये भी और इसकी जानकारी आपको  हो कि आप कारण बने है किसी की पीड़ा का … ये भाव अपने आप मे पश्चाताप का विषय बन जाता है और कई बार ये भाव अंदर ही अंदर व्यक्ति को खाये जाता है फिर वो बाते भी कल्पना मे आती है जो बाते होती भी नहीं है यहाँ हमे कई बार अति विचार [ Overthinking ]के संकेत मिलने लग जाते है  क्योकि हम उन कल्पनाओ [imagination ] के लिए भी परेशान होते रहते है जिनका वास्तविकता मे कोई अस्तित्व ही नहीं है साथ ही  हमारी प्रतिक्रिया भी उन कल्पनाओ के आधार पर होती है और यह सब इसीलिए होता है क्योकि हम बिना विचार किए वो बाते कह देते या वो कार्य कर लेते  जो जानबूझकर तो नहीं किन्तु हमारे द्वारा कर तो दिए  तो जाते है पर न किए गए होते तो संभवत परिस्थितियां कुछ और होती ….. 

 काफी नहीं है 

जो हुआ सो हुआ … इतना काफी नहीं है

खुद के किए कि खुद को माफ़ी नहीं है

क्यो ये ख्याल कुछ और ख्याल करने नहीं देता

कि हर बार माफी मांग लेना ही काफी नहीं है

मैं क्यो वो पल दोहरा नहीं सकता

अपने लफ्जो को वापस ला नही सकता

सामने भी मुझ सा है कोई … क्यो भूल जाता हूँ

कैसे कहूँ  हुआ सो हुआ … अब मैं पच्छता नहीं सकता

उसके मन को खुद के मन तक लाऊं कैसे

कि अपना हाल उसको दिखाऊँ कैसे

जब भी सोचूँ तो लगता है अब कुछ बाकी नहीं है

खुद के किए कि खुद को माफ़ी नहीं है

 

निराशावादी होना कभी सही मार्ग को प्रशस्त नहीं कर सकता है और जब तक विचारो की दुनियाँ से निकलकर स्वयं को वास्तविकता से  परिचित करना आवश्यक हो जाता है साथ ही  जितना संभव हो यथार्थ मे जीना होता है … इससे यह फायदा होता है कि व्यक्ति वो ही देख पता है जो प्रत्यक्ष है ना कि वो जो केवल उसके विचारो कि तस्वीर है  या वो कहानी जो उसने कल्पनाओ मे बुनी है … इन सब से इतर व्यक्ति निर्णय लेने मे सक्षम होता है क्योकि वो वास्तविकता के हर पहलू से परिचित होकर अपना पक्ष रखता है और तार्किक रूप से रखे हुये पक्ष सटीक साबित हो ही जाते है और साथ इसमे निस्वार्थ भावनात्मक पक्ष का समावेश हो तो फैसले और बेहतर हो जाते है ….. इसके साथ ही जिस मे बदलाव नहीं हो सकता उस पर अपनी ऊर्जा लगाने से अच्छा है कि या तो जो है उसे उसी रूप मे स्वीकार कर ले या बेहतर मार्ग कि ओर स्वयं को प्रशस्त किया जाएँ क्योकि बिना गति वाला स्थिर जल भी अपनी गुणवत्ता त्याग देता है तो कोई स्थिर रहकर या स्वयं को रोककर कोई अपना विकास भला किस प्रकार कर पाएंगे …

समय किसी कि भी प्रतिक्षा नहीं करता है तो अगर आप स्वयं को रोक लेते भी है तो समय अपनी गति करता ही है …साथ ही अंत मात्र पश्चाताप के सिवा  कुछ और शेष नहीं रह जाता है तो अपनी गति और मन के संकल्प पर विश्वास करके बढ़ते रहना ही सही होता है क्योकि आपके कर्म आपका भविष्य स्वत बनाते जाएंगे …. जो जो कार्य आप करेंगे या जो जो विचार आप करेंगे वहीं सब आपके प्रत्यक्ष आते जाएंगे और सहजता इसी मे कि छोटी छोटी योजनाओ को बनाकर कार्य किया जाएँ तो वह अंततः बड़े परिणाम अवश्य ही देगी और यही परिणाम अच्छे जीवन का निर्माण करते है जिसमे अतीत कि कड़वाहट मिटती नजर आती है साथ ही इस बात पर यकीन और दृढ़ हो जाता है कि मुश्किल समय जीवन को बेहतर ही आता है अगर आप उस समय मे संयम और कर्म का साथ न छोड़े तो ….

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