|| बिछड़ना || 

बिछड़ना स्वयं से …जीवन में कितनी बार ऐसा हुआ है जब हम अपने भाव को छुपा लिया करते है वो भी जानबूझकर क्योंकि हम पहले से ही यह तय  कर लेते है कि कोई नही समझेगा और समझ भी गया तो पता नहीं क्या सोचेगें  या किस प्रकार की धारणा का निर्माण करेंगे  , या फिर हमे ऐसा महसूस होता है कि अगर हमने अपने भावो को व्यक्त कर दिया तो कहीं हमारे  सम्मान में या  हम में कुछ कमी हो जाएगी जबकि ऐसा  कुछ होता नहीं है  वो महज हमारा विचार ही रहता है और हम इस विचार को इतना महत्व दे दे देते हैं कि इस विचार के आगे में कुछ दिखाई नहीं देता … तब जो  बहुत जरूरी होता है वह भी नहीं ,बस हम इस विचार को खाद पानी देखकर इतना मजबूत कर लेते हैं कि बाकी सब चीजें गौण हो जाती है और वह गौण चीजे इतनी महत्वपूर्ण होती है कि इनके अभाव मे सब रिक्त हो सकता है ये हम भूल जाते है ….

|| बिछड़ने की आरजू ||

बिछड़ने की आरजू लेकर उसने मिलने की ख्वाहिश की

जाने ऐसा लग रहा है सांसे छीन कर ,लंबी उम्र की दुआ दे रहा है वो

निकला था घर से सपनो को पूरा करने वो

सबके सपने पूरे करते करते … वक्त के साथ बह रहा है वो

यू लफ़्ज़ों को रोक लेना …पाबंद करना खुद को अंधेरों में

आंखों से ओझल करना छलावा है हकीकत में बहुत कुछ कह रहा है वो

आंखें खुश्क है फूल सा चेहरा पाषाण है

फिर मर्द की फितरत आ गई जज्बातों के बीच

ना जाने इस चुप्पी में क्या कुछ सह रहा है वो

ना कोई वादे किए… ना कोई कसमो का दौर रहा

लिबासो के जहां में रूह को तराश कर बा-पर्दा साथ दे रहा है वो

 

चार लोग क्या कहेंगे …. ये वाक्य हर किंही ने अपने जीवन मे सुना होगा और ये वो चार लोग है जो न होकर भी हमेशा रहते है और इनके रहते हम अपने जीवन के अहम निर्णय तक बदल देते है अधिकाश … जबकि इनकी कोई भूमिका ही नहीं है क्योकि जो कहने वाले है वो कहते ही रहेंगे और साथ देने वाले साथ देंगे चाहे समय कैसा भी हो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता साथ ही कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते जिनमे कोई ठहराव नहीं होता समय और परिस्थिति के साथ बदलते रहते है …. इन सब मे चयन हमारा होता है कि हम किनकी सुनते है या स्वयं पर कितना विश्वास करते है क्योकि कर्म किए है तो नतीजे मिलेंगे ही इसमे कोई शक नहीं  है और आपके चयन आपके भाग्य को बनाते है  और आपका भाग्य आपको इसीलिए स्वयं पर विश्वास बहुत जरूरी होता  है क्योकि आपको यकीन है कि आप कर पाएंगे तो निश्चित रूप से आप कर लेंगे और आवश्यकता अनुसार साधन भी जुटा लेंगे…. यहाँ करी स्वयं पर निर्भर होकर किया जाएगा तो आत्म संतुष्टि होना स्वाभाविक है |

इन्ही विचारो के कारण कभी कभी हम कुछ ऐसे व्यक्तियों से भी दूरी बना लेते है जो जीवन के लिए बहुत जरूरी हुआ करते है पर कभी वक्त ओ हालात तो कभी लोग के चलते हम उनके साथ नहीं रह पाते ,तब यह स्पष्ट होता है कि अपना अपना जीवन जीना सुखद नहीं है फिर भी उनके सारे सुख कि कामना  करते है …. ऐसे मे हम लोगो से …हालात से नहीं अपने मन और उसमे स्थापित धारणाओ के कारण वो निर्णय ही नहीं ले पाते है जो संभवत हमारे जीवन को नई दिशा दे सकता है …. हमे आदत हो चुकी  उस परिवेश की और हम स्वयं भी कोई बदलाव नहीं चाहते इसीलिए कोई बदलाव नहीं हो रहे और  जो चला आ रहा था वो चला आ रहा है और यही चलता रहेगा … तब तक जब तक हम नहीं चाहेंगे |

 

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