स्त्री…. हमेशा ही लोगो की जिज्ञासा का विषय रहा है इसीलिए काव्य , चलचित्र , संवाद और अभिव्यक्ति आदि मे स्त्री और उसका स्वभाव सदैव रहा है साथ ही पौराणिक कथाओ का आधार उनसे संबधित लेख यह व्यक्त करते है कि स्त्री क्या है …. वास्तविकता में यह समझने से अधिक अनुभव करने का विषय है , स्त्री को जितना अधिक समझा गया संभवतः उलझने बढ़ी ही है और इसका मुख्य कारण यह हो सकता है कि उसे जाना नहीं गया … अनुभव नहीं किया गया …उसे पढ़ा नहीं गया , बस प्रयास किया गया उसे इच्छा अनुरूप आकार देने का जिसमें उसकी वास्तविकता है भी या नहीं यह जानने का प्रयास नहीं किया गया और अंततः इससे अंतर पड़ता भी क्या है …. जबकि वास्तविकता में अंतर इसी से पड़ता है क्योंकि रचना करने वाला रचना से सदैव ही महान् होता है….
|| अहिल्या की कहानी है ||
एकमात्र लक्ष्य हो समर्पण के लिए
किन्तु वही अविश्वास दिखाएं तो
बिना कोई पक्ष जाने
मूँद नयन न्याय कर जाएं तो
सालो की तपस्या को कर खंडित
चरित्र पर प्रश्न चिह्न लगाएं तो
भावहीन कर देती है
मौन की शरण लेती है
शुष्क लोचन लहू विराम से
स्त्री स्त्रीत्व खो देती है
चंचलता शून्य हो स्थिरता स्थान लेती है
पढ़ी सभी ने किन्तु कितनों ने ये बात जानी है
स्त्रीत्वहीन स्त्री … स्त्री नहीं पाषाण है
ओर यही अहिल्या की कहानी है …………
– गरिमा मौर्य
अहिल्या की कहानी
एक व्यक्ति को कोई किसी पहलू मे सीमित नहीं कर सकते फिर स्त्री का चरित्र तो ऐसा है जो अपनेआप मे अनेक चरित्रों को उजागर करने की क्षमता रखता है…
इसी मे बहुत बड़ी कथा का अंश जो स्वयं मे पूर्ण है अहिल्या… वही अहिल्या जो पाषण हो गई पर स्त्री का पाषण हो जाना विचित्र सा प्रतीत होता है किन्तु असंभव भी तो नहीं है क्योकि स्त्री द्वारा समर्पण के पश्चात भी उसके चरित्र पर लगने वाला प्रत्येक प्रश्न उसे धीरे – धीरे भावहीन कर देता है और स्त्री का पूर्ण स्वरूप ही उसके भावो मे छिपा है …. तो अपने आधारभूत गुणो से हीन स्त्री को हाड़ – माँस का पुतला कहे या पाषण अंतर क्या है…..
स्त्री के जीवन को पूर्ण उसी के भाव करते है …. स्त्री के अधरों की प्रसन्नता उसके जीवन का विवरण प्रस्तुत करती है और जब यही प्रसन्नता को उससे अलग कर दिया जाएं तो यह अन्याय है उसके साथ …. अब प्रश्न यह है कि यह अन्याय वही कर सकता है जिस पर विश्वास स्वयं से अधिक हो और जब बातें दो पक्षीय होने लग जाएं जैसे प्रेम , विश्वास , स्नेह , सम्मान और आपसी आत्मीयता तो जीवन में संबंध समय के साथ और अधिक प्रगाढ़ होता जाएगा …. स्त्री का जीवन संबंधों के इर्दगिर्द ही रहता है इसीलिए स्त्री चार दीवारी को भी अपना संसार स्वीकार कर लेती है और यही सरलता है ….