मेरा विश्वास करो {लघुकथा }

मेरा विश्वास करो

{लघुकथा }

 

वो जब भी रात को देर से आते थे तो …  चेहरे पर उदासीनता ,आंखो में नशा,कंधे पर  बाल, शर्ट पर लिपस्टिक का निशान  और भी कई संकेत देखकर भी उनकी हर झूठी बात का विश्वास कर लेती थीं मै क्योकि न तो मेरे पास और  कोई विकल्प था साथ ही  इस खोखले समाज के आगे उनकी झूठी शान जो बरकरार रखनी थी … ऐसे मे रात के काले अंधेरे मे अकेली बैठी सोचती हूँ कि जो कभी बुलंद आवाज और क्रांति लाने वाले विचारों का समर्थन करती थी … हर गलत बात का विरोध करती थी वो  लड़की घुट घुट कर सहम रहीं थी बस इसीलिए कि  माता पिता के दिए संस्कारों पर कोई आंच ना आएं …. हाँ ये अलग बात है कि इन संस्कारो ने मुझे मजबूत नहीं कमजोर बना दिया था  या दोष मेरा था  कि मैंने ये सब स्वीकार कर लिया था जो कि अब लगता है नहीं करना चाहिए था  पर अब ये सब रोज का हिस्सा हो गया है …. दिन बीते बाजार में सामान खरीदते वक्त अचानक कॉलेज का मित्र मिला, समय के अनुसार हम दोनों के स्वरूप में परिवर्तन आ गया था लेकिन मानो मित्रता वैसी ही थी। मै भी चाय के लिए उसे…. अपने घर  साथ ले आई और  कॉलेज की बातें  याद करते करते हम चाय पी ही रहे थे कि आज वो दफ्तर से जल्दी आ गए। ना जाने क्यों उनके चेहरे से साफ पता चल रहा था कि मेरे मित्र को देखकर उन्हें अच्छा नहीं लगा फिर  मेरे मित्र के जाने के बाद जैसे उनके देखकर मै विश्वास नहीं कर पा रही थी कि ये वो ही व्यक्ति है या कोई और  ही है जिनके हर एक झूठ को जानते हुए भी सच माना और वो मित्र को भी मेरा  आशिक़ बनाएं बैठे थे फिर  सारी मलिनताओ को इक्कठा कर  के चरित्र को कलंकित कर देना … बात भी सही है सबसे सहज होता है संभवत चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाना   … अश्रु को आंखो मे समेट कर जिनके सामने दिखते हुये सच को भी  झूठ मान कर  विश्वास कर  लिया करती थी मैं पर अब खुद को आजाद कराने वाली हूँ  समाज के बनाएँ खोखले विचारो और खुद के बनाएं पिंजरे से …. दृढ़ निश्चय के साथ  माता पिता की आखिरी निशानी ले मैंने कहाँ विश्वास नहीं है मत करो पर अब इस खोखले रिश्ते से मुझे आजाद करो और मैंने दहलीज को पार कर ली आखिरँ….

 

 

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