।।दृष्टिकोण।।
एक दृष्टि में कितने दृष्टिकोण है यह स्थिति पर निर्भर करता है क्योंकि हर व्यक्ति ने अपनी सूझबूझ अपनी इच्छाओं के अनुरूप एक सांचा तैयार करा है, अगर उस सांचे में जब तक कोई मेल खा रहा है तब तक वह अच्छा लगता है और जैसे ही उस सांचे के बाहर अलग होने लगता है या ऐसा कुछ जो समझ में ना आए तो वही व्यक्ति अनुकूल नहीं लगता है जबकि यह व्यक्ति वही है जो कि एक समय पर अनुकूल प्रतीत होता है तो यह जो परिवर्तन का कारण है यह व्यक्ति से संबंधित नहीं है यह परिस्थिति से संबंधित हैं क्योंकि जब तक कोई आपके मन के अनुरूप करता है अच्छा लगता है और जैसे ही वह उसके विपरीत या स्वेच्छा से कुछ करने का प्रयास करता है तो वैचारिक भेद उत्पन्न होने लगते है क्योंकि हमें वह पसंद है जो हमारे अनुकूल हो ना कि वह जो कि जैसा है वैसा हो इन सांचों का निर्माण जो कि हमने अपने मन के अंदर तय किया होता है जो कि इस आधार पर होता है कि हमारे विचार कैसे हैं ….हमने कैसी परिस्थितियां देखी है… हम किस वातावरण में रहे हैं… हमें किस तरह की चीजों में रूचि है या हमने जीवन में किन संघर्षों को देखकर आगे कदम रखा है यह सब इसी पर ही निर्भर करते हैं और अलग गलत ही हो यह कभी आवश्यक नहीं है बस इसलिए कि वह हमें हमारे जैसा प्रतीत नही होता है तो हमें किसी भी व्यक्ति को उसकी वास्तविकता के साथ स्वीकार करना चाहिए ना कि हम उनकी वास्तविकता को ही खत्म कर अपने अनुकूलता से उसका निर्माण करें जो कि उचित नहीं है क्योंकि सुधार करना और परिवर्तन करना दोनों में अंतर है…
||मुझे वही आकार भाएं क्यो||
मनचाहा मन मे खोजा न नयन बाहर पसारे यूं
बाहर व्यापार साँचो का , मुझे वही आकार भाएं क्यो
क्यों आंखे बड़ी चाहिए … छोटे चक्षु मे भी चित्र समाते है
कैसी व्याख्या सुंदरता की
दिल के सुन्दर… सब खुबसूरत नजर आते है
दौर को कायम रखे कि आभूषण चाहिए सजाने को
उँगलियाँ हो मजबूत इतनी कलम आतुर रहे चलाने को
कोई घुल जाएँ चाय सा ख्याल-ओ-जहन मे
हर बार दुध सा स्वरुप ही कोई चाहे क्यो
बाहर व्यापार साँचो का , मुझे वही आकार भाएं क्यो
हर कोई काबिल है शब्दो को सुनने… समझने…. अर्थ निकालने मे
कोई हो जो रुचि रखे खामोशी से बात संभालने मे
ये आनन फानन सा आनन फानन मे ही हो जाता खत्म है
वक्त लगता है रफ्ता रफ्ता जिंदगी को सजाने मे
जो समझ रखे मौन को समझने का
फिर हर बार अल्फ़ाजी नज्म गाएं क्यों
बाहर व्यापार साँचो का , मुझे वही आकार भाएं क्यों
किसी को क्या चाहिए ,यह विषय किसी का है
जिसे तुम चाहिए हो ,क्या तुम्हें भी ख्याल उसी का है
हर एक की बात पर खुद को उलझाना कैसा
तुम खुद तय करो जो पूर्ण करे तुम्हारे अस्तित्व जैसा
जो जैसा है अपना लें उन्हें हुबहू वैसा
बनी मूरत को फिर बनाएं क्यों
बाहर व्यापार साँचो का , मुझे वही आकार भाएं क्यों
कथनी को करनी तक लाना सहज नही है …. किंतु यह अगर हो जाएं तो जटिलताएं स्वत ही कम हो जाएगी और कोई भी समस्या हल होने से पहले वह जटिल ही होती है….. समाधान के लिए उन्हें सरल बनाया जाता है …. यह सब हमारे वैचारिक चिंतन पर निर्भर करता है , हमे अपने विचारो को क्या दिशा देनी यह सिर्फ हम तय कर सकते है क्योंकी अन्य सभी के अधिकार में होता है सुझाव देना किंतु उसे निर्णय में परिवर्तित करने का आधार हम ही है और किंही ने सही कहा है कि मोड़ सारे मन के है बाकी जीवन यात्रा तो सीधी है ।
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