शिवरात्रि तुम कौन हो

|| मौन ||
व्यक्ति अपनी वास्तविकता को जानने के लिए जिस साधन का उपयोग कर सके वह मौन है । मौन से हमें उन समाधानों का पता लगता है जिसे हम अक्सर बाहर खोजते रहते हैं, क्योंकि वास्तविकता हमारे अंतर्मन में ही छिपी भी रहती है और उसे छिपी भी वास्तविकता को जानने के लिए एकांत और मौन एक साधन के रूप में कार्य करता है । कई बार हम सत्य से परिचित होते हैं किंतु हमें सत्य स्वीकारने की ताकत नहीं होती है और जब यह प्रश्न अंतर्मन से किया जाता है तो अंतर्मन बिना पक्षपात किया वास्तविकता से अवगत करवाता है इसीलिए मौन को साधन बताया गया है क्योंकि हम सबको अपनी वह वास्तविकता नहीं दिखाते हैं जिससे हम वास्तव में जानते हैं । हम अपनी वास्तविकता को परिस्थिति के अनुसार लोगों के लिए बदलते हैं किंतु हम वास्तव में क्या है यह हमारे अंतर्मन को अवश्य ही पता होता है और अगर हम अपने अंतर्मन से भी छल कर रहे हैं तो फिर समस्या का समाधान संसार में किसी भी जगह नहीं है…

तुम कौन हो

तुम कौन हो
यह शाब्दिक अभिव्यक्ति
है असंभव सी
पर ध्यान है मुझे
तुम ध्यान में रहते हो
कर्म जानते हो
पर लिप्त नहीं होते
सब संसार तुम्हारा है
पर संसार में नहीं खोते
तुम्हारी आत्मा के अस्तित्व
जिनको मैं जानती हूं
जिनको पूजते हो तुम
उसे आराध्य मैं भी मानती हूं
तुम दोनों में उत्पन्न लास्य
जीवन का परिणाम है
तुम्ही से भोर और
तुम्ही से शाम है
तुम दोनों जब साथ हो
नव जीवन नव पात हो
तुम्हारा अलगाव विध्वंस लाएं
तुम कर देते सर्व विनाश हो
तुम्हारे अंतर्मन में प्रेम परिभाषा
प्रतीक्षा है
और जो निवास करती तुम्हारे भीतर
तुम्हे करने प्राप्त की उन्होंने की तपस्या है
तुम आदर्श हो विश्वाश हो
शून्य सत्य शाश्वत का प्रकाश हो
तुम मृत्यु हो तुम जीवन भी
तुम्ही आत्मा ही और देह भी
तुम्हारे ध्यान में मैं तुम्ही हो जाऊं
देह से शिव और आत्मा शक्ति हो जाऊं
यही पराकाष्ठा है प्रेम की
ना वियोग ना मिलन की बात हो
तुम मैं हो जाऊं और मैं तुम हो जाओ

प्रेम क्या है इसकी परिभाषाएं हर व्यक्ति की अपने संदर्भ में भिन्न हो सकती है पर प्रेम का वास्तविक अर्थ है आत्मसात हो जाना …. मिल जाना है ,क्योंकि कोई भी व्यक्ति स्वयं से अन्याय नहीं कर सकता अर्थात जहां प्रेम है वहां अन्याय नहीं होता अर्थात वहां पर सम्मान होता है , समता होती है, महत्व होता है और जहां सम्मान नहीं, समता नहीं, न्याय नहीं वहां प्रेम की कल्पना करना भी व्यर्थ है । प्रेम हर संबंध का आधार है और इस आधार में अगर छल है …स्वार्थ है तो आधार मजबूत नहीं है तो फिर संबंध के भविष्य की कल्पना कैसे पूर्ण हो सकती है और प्रेम कभी मालिन नहीं हो सकता और जो मालिन है फिर यह मान लिया जाए वह प्रेम था ही नहीं । प्रेम तो उसे स्वच्छ जल में उगे कमल की भांति है,जिसे वातावरण भी स्वच्छ, निश्चल और पवित्र चाहिए और अपवित्रता में वह जीवन की आशा को खत्म कर देता है या फिर उस स्थान से दूर हो जाता है और हो सकता है कि सांसारिक प्रेम की मर्यादा हो क्योंकि जिन्हें हम प्रेम दे वो भी हमे वैसा ही प्रेम दे पाएं आवश्यक नहीं किंतु अपने आराध्य के लिए किया गया प्रेम हमेशा पूर्णता की ओर गमन करता है और यहां सिर्फ प्रेम निवास करता है । शुद्ध अंतःकरण से किया गया प्रेम जो कि असीमित है…. अन्नत है ….शाश्वत है …

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